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एक विशेष आग्रह

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बाल विकास के स्वर्णिम सूत्र (एक मनोवैज्ञानिक लेख)

             मनुष्य,  सृष्टि कर्ता की एक उत्कृष्ट कृति है।  मनुष्य जैसी बौद्धिक क्षमता किसी अन्य जीव ,जन्तु, पशु पक्षी आदि में नहीं पायी जाती।  हम चिड़िया, मछली, घोड़ा आदि की भांति उड़ने तैरने व् दौडने में असमर्थ है।  परन्तु हमारी बौद्धिक क्षमता ने हमें उड़ना, तैरना, भागना सभी में माहिर कर दिया। गाय का बछड़ा जन्म लेने के तुरंत बाद ही चलना प्रारम्भ कर देता है, बन्दर के बच्चे को छलांग लगाने के लिए किसी संस्थान से प्रशिक्षण लेने की आवश्यकता नहीं होती, बिल्ली, शेर, चीता, रीछ आदि के बच्चे जन्म जात ही शिकारी होते है।              लेकिन मनुष्य के बालक में तो इतना ज्ञान भी नहीं होता की वो साथ में लेटी अपनी माँ का स्तन पान भी स्वयं कर ले ,आदमी का बच्चा तो बस रोना जनता है।  वह  न तो खुद उठ बैठ सकता है और न ही चल फिर सकता है। उसे तो बोल, चाल, खान, पान, रहन, सहन सब कुछ सिखाना ही पड़ता है।           क्योंकि प्रकृति ने यह सुविधा केवल मनुष्य को ही प्रदान की है,कि वह अपने बच्चे को जैसा चाहे वैसा बना ले जो जैसा सिखाएगा ,समझायेगा , व् बताएगा उसका बच्चा ठीक वैसा ही बन जायेगा। बच्चा उस गीली मिट्टी  की तरह

बालकों का भावनात्मक विकास करें

                      आज प्रायः समाज का  हर व्यक्ति अपनी सन्तान के भविष्य की चिंता से ग्रस्त है।  बच्चों की शिक्षा उनका रहन सहन उन की सोसायटी खान पान आदि आदि।  जितना बड़ा नगर उतनी बड़ी चिंता, अच्छी से अच्छी शिक्षा प्रदान करने के लिए माता पिता दोनों एड़ी छोटी का ज़ोर लगा रहें है।  मैने यहाँ तक देखा है कि पिता का पूरा वेतन बच्चो की शिक्षा पर खर्च होता है और माँ की सेलरी से घर और बाकी खर्च पूरे होते है।  ऐसी मिसालें महानगरों में भरी पड़ी है।              आधुनिकता की अंधी भागम भाग जो बच्चों  के लिए ही हो रही है उन के पास उनके लिए ही वक़्त नहीं है घर में खुशियों का सब साजो सामान सजा कर बैठ गए और हसने के लिए वक़्त नहीं। बच्चे शिक्षित तो हो रहे है, मगर विद्या वान नहीं। ज़रा सी बरसात क्या हो गयी इमारतें गिरने लगी क्या इन को बनाने वाले इंजीनियर नहीं थे, अनपढ़ थे क्या वो  शिक्षित नहीं थे जो वो बता पाते कि बिल्डिंग में कितना सरिया और कितना सीमेंट लगेगा।  जी नहीं उन को मालूम था क्यों कि उन को केवल रुपया कमाना था जो शिक्षा ने सिखाया यदि उन के पास विद्या होती तो शायद वो बेक़सूर मासूमों की जिन्दगी से न खेलते

असीमसे जुड़े, अल्प से नहीं

                         हमारा उद्देश्य किसी की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचना नहीं बल्कि ठेस लगने से बचाना है।  यह  लेख किसी के व्यक्तिगत जीवन पर आधारित नहीं है लेखक के स्वतंत्र विचार है।  यदि यह लेख किसी की व्यक्तिगत जीवन से मेल खाता है तो यह केवल एक संयोग ही है।                        कई दिनों से एक दर्द ले कर घूम रहा था, भक्ति में डूबे, गुरुभक्ति, प्रभु भक्ति से लबा लब भरे लोगो को देख कर कभी कभी हसी के साथ में गहरी सोच में डूब कर जाता हूँ। कि समाज में किस बेहरहमी के साथ इन तथा कथितआश्रम रूपी कत्लखानो में लोगो की श्रद्धा, निष्ठा, विश्वास का गोरख धंधा चल रहा है।  इन बेचारे अन्ध भक्तो का क्या होगा इन को सही मार्ग कौन सुझाएगा  ? जो मार्ग बताने वाला है, वो ही इन को पथ भ्रष्ट करने में लगा है।  पता तो तब चलता है , जब विश्व विख्यात फलां फलां ......जी कुख्यात बन जाते है तब समझ में आता है, की मेने ये क्या किया, यदि आप का आध्यात्मिक स्तर सही से विकसित है, तो आप सम्भल  जायेंगे, वरना कभी कभी  इतना करीब और आगे जा कर धोखा खा लेने के बाद सम्भलना बहुत मुश्किल भी हो जाता है।  क्यों कि लोग इतने

जीवन कैसे जिया जाये

किसी ने क्या खूब लिखा है लिखने वाले ने , " सोते तो तब थे जब माँ सुलाती थी , अब तो बस थक कर गिर जाता हु।  आज की जिंदगी को देख कर हसी आती है क्या इसी का नाम जीवन है , क्या यही सब करना ही हमारा उद्देश्य है।  या हम अपने मार्ग से भटक गए है।                          अपनी दिन चर्या के अनुरूप अपने आप से पूछिए , कि जो हमारी जीवन शैली है, क्या इसी का नाम जीवन है, जवाब में न ही मिलेगा।  जिसका एक मात्र कारण समय का अभाव है घर में खुशिओं का सब साजोसामान इकक्ठा कर लिया और परिवार के साथ बैठ कर हसने का वक्त नहीं।  आधुनिकता की अंधी दौड़ में भागते भागते हमारे संस्कार, हमारी विद्या , हमारे परिवार , स्वास्थ्य , सुख, चैन सभी कुछ तो चला गया सकून से रहने  के चक्कर में लेकिन सकूं तो क्या हमारी तो नींद भी चली गयी यदि हाथ में कुछ आया भी तो संस्कारो की जगह आधुनिकता, विद्या की जगह शिक्षा, घर की जगह मकान और स्वास्थ्य का स्थान मेडिकल पॉलिसी ने ले लिया।  मकान के साथ साथ दिल भी छोटे हो गए विचार भी दूषित हो गए जिसका परिणाम हमारे सामने है।                  आज के परिवेश में मानव का स्तर पशु से ज्यादा निचले स्तर प

अपनों से अपनी बात

ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं है, जो स्वच्छ वातावरण, सुन्दर माहौल और सुरक्षित जीवन न चाहता हो ,                   लेकिन प्रश्न यह उठता है,  हम उस के लिए क्या प्रयास कर रहे है।  प्रत्येक कार्य के लिए सरकार का ही उत्तर दायित्व क्यो ? पूरा राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र प्रदूषण के भीषण गुबार की चपेट में है। हम सांस के साथ ज़हर खा रहे है, वृक्ष काटे जा रहे है, महिलाएं असुरक्षित है बुजुर्ग असहाय है। बालको में संस्कारों  का अभाव  हो रहा है अश्लीलता सुरसा की तरह फैलती जा रही है भ्र्ष्टाचार किसी से नहीं छुपा। यह सब ठीक कैसे होगा,   यह मामूली विषय नहीं है ,इतिहास गवाह है  जब देश आज़ादी की लड़ाई लड़ रहा था यदि नेता जी सुभाष चंद्र बोस, भगत सिंह, चंद्र शेखर आज़ाद अकेले ही इस विषय पर काम करते तो शायद उनका ये सपना सच न होता उनकी एक आवाज़  पर देश वासी अपनी जान  तक न्यौझावर कर देने का जज्बा ले कर मैदान में कूद गए महिलाओ ने अपने ज़ेवर बेच कर पिस्तोल खरीदी और किसानों ने अपनी दरातिया  गला  कर तलवारे बना डाली  और ब्रिटिश  हकूमत को जड़  से उखाड़ फेका।     ठीक वैसे ही कार्य करना होगा, हर देश वासी के दिल में समाज के प्रति